Thursday, September 2, 2010

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Saturday, August 28, 2010

परिवर्तन.........


बहुत दिनों बाद मौसम खुशगवार लगता है .
हवा ने शायद करवट बदल ली होगी !!

वो जमीं के शख्स उड्ते हैं आसमानों में
शायद दो रोटी मयस्सर हो गयी होगी !!

भरी है आज फिर उडान इन पतंगो ने
शमां की लौ में शायद कुछ नमी होगी !!

गिर के उठे, उठ के चले यारॊ जब भी
छालों भरे पांवों के नीचे जमीं होगी !!

होता रहा बंट्वारा पहले भी घरों का यारो
ईंट से ईंट तो ऐसे ना कभी बजी होगी !!

बो डालें चल अब आशा के बीज जीवन में
खुशियों से कल दुनियां अपनी तो भरी होगी !!

Thursday, August 19, 2010

अब कहां जाऊं.....


सुरसा के मुंह की तरह
फैलती सडकें
किनारे पर सहमे, डरे
कटने को तैयार
बरगद ने पूछा : अब कहां जाऊं ?

सावन की ऋतु में
कभी जीवन से भरे
पत्तॊं की तरह सूखे, आज
पानी की तलाश में
भूरे बादल ने पूछा : अब कहां जाऊं ?

जेठ की तपिश में
कुऐं की मुंडेर से छ्लकती
जीवन की परछाई
कल बावडी के टूटे गिरे
पत्थर ने पूछा : अब कहां जाऊं ?

कभी लहलहाते खेतों की खुशबू
और खलिहानों में खोने का डर
आज साहूकार से बचे
एक मुठ्ठी अनाज को तरसे
खेत ने पूछा : अब कहां जाऊं ?

आज फिर शहर आया हूं
सुहाने वो बचपन के दिन
पर धुयें से घुटी और सूखी
सांसों को तरसी
हवा ने भी पूछा : अब कहां जाऊं ?

Friday, July 30, 2010

ओ डाल पर बैठे कालिदास.........









तुम्हारा बीता कल

पोषक स्वरुप 

देता रहा

वरदानों की झड़ी

आंखें मूंदे

चलता रहा

अर्थ का संसार

तुम फिर भी शांत , अविचल................



बाढ़ के पानी की तरह बढ़ता अनचाहा हुजूम

घुलता रहा हवा में , पानी में धीमा धीमा

ज़हर ही ज़हर..........................



अकाल और बाढ़

बहती हुई मिटटी

या तपती हुई धरती

करती परिलक्षित बच्चों को आँख दिखाती सी

अपना क्रोध .......................




चट्टानों के बीच गिरा,

वो जीवन का बीज

देखेगा कल

विरासत में दी हमारी देन

मलिन और व्यथित

विकृत और घायल

जीवनदायिनी धरा .....................




ओ डाल पर बैठे कालिदास

ज़रा नीचे उतर

अब तो सोंच

पहचान और खोज

टूटी कड़ियाँ

मत काट फिर से

कुछ और डालियाँ ............








( देहरादून इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय वन अकादमी १९९२ ....हिंदी प्रितियोगिता के लिए लिखी गयी कविता )