Friday, July 30, 2010

ओ डाल पर बैठे कालिदास.........









तुम्हारा बीता कल

पोषक स्वरुप 

देता रहा

वरदानों की झड़ी

आंखें मूंदे

चलता रहा

अर्थ का संसार

तुम फिर भी शांत , अविचल................



बाढ़ के पानी की तरह बढ़ता अनचाहा हुजूम

घुलता रहा हवा में , पानी में धीमा धीमा

ज़हर ही ज़हर..........................



अकाल और बाढ़

बहती हुई मिटटी

या तपती हुई धरती

करती परिलक्षित बच्चों को आँख दिखाती सी

अपना क्रोध .......................




चट्टानों के बीच गिरा,

वो जीवन का बीज

देखेगा कल

विरासत में दी हमारी देन

मलिन और व्यथित

विकृत और घायल

जीवनदायिनी धरा .....................




ओ डाल पर बैठे कालिदास

ज़रा नीचे उतर

अब तो सोंच

पहचान और खोज

टूटी कड़ियाँ

मत काट फिर से

कुछ और डालियाँ ............








( देहरादून इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय वन अकादमी १९९२ ....हिंदी प्रितियोगिता के लिए लिखी गयी कविता )