Thursday, August 19, 2010

अब कहां जाऊं.....


सुरसा के मुंह की तरह
फैलती सडकें
किनारे पर सहमे, डरे
कटने को तैयार
बरगद ने पूछा : अब कहां जाऊं ?

सावन की ऋतु में
कभी जीवन से भरे
पत्तॊं की तरह सूखे, आज
पानी की तलाश में
भूरे बादल ने पूछा : अब कहां जाऊं ?

जेठ की तपिश में
कुऐं की मुंडेर से छ्लकती
जीवन की परछाई
कल बावडी के टूटे गिरे
पत्थर ने पूछा : अब कहां जाऊं ?

कभी लहलहाते खेतों की खुशबू
और खलिहानों में खोने का डर
आज साहूकार से बचे
एक मुठ्ठी अनाज को तरसे
खेत ने पूछा : अब कहां जाऊं ?

आज फिर शहर आया हूं
सुहाने वो बचपन के दिन
पर धुयें से घुटी और सूखी
सांसों को तरसी
हवा ने भी पूछा : अब कहां जाऊं ?

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